Tuesday 26 February 2019


मुक्ति के स्वर पत्रिका से -
क्यों करती हैं महिलाएँ आत्महत्या?
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार भारत में हर साल 20,000 से ज्यादा घरेलू महिलाएँ आत्महत्या कर लेती हैं। यह आँकड़ा कितना बड़ा है, इसका अनुमान इस बात से लगा सकते हैं कि हर आधे घण्टे में एक महिला आत्महत्या कर लेती है। दहेज के कारण हत्या के मामले इसमें शामिल नहीं हैं। आत्महत्या करने वाली लगभग आधी महिलाएँ जहर खा लेती हैं जो बाजार में आसानी मिल जाता है। बाकी महिलाओं में ज्यादातर फाँसी लगाकर जान देती हंै। सवाल यह है कि महिलाएँ आत्महत्या क्यों करती हैं।
सभी घरेलू महिलाओं की व्यथा–कथा और दिनचर्या लगभग एक–सी है। उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है क्योंकि वे पैसे कमा कर नहीं लातीं, भले ही पूरा दिन घर के काम–काज और बच्चों के लालन–पालन में लगा दें। साथ–ही ‘कोई काम नहीं करती’ कहकर उन्हें अपमानित किया जाता है। काम से थकी और जमाने से पीड़ित जब वह अपने पति से प्यार और सम्मान की उम्मीद करती है तो वहाँ भी उसे चोट खानी पड़ती है। बच्चे भी अपना सारा गुस्सा अपनी माँ पर ही उतारते हैं। ऐसी स्थिति में वह अपने मायके से मदद की उम्मीद करती है। लेकिन वहाँ से भी उसे निराशा ही मिलती है। उसे सीख दी जाती है कि यही तुम्हारा भाग्य है।
अपमान, पीड़ा और थकान से पस्त वह कहती है–– “जहर खा लूँगी, मर जाऊँगी।” लेकिन इन बातों का उसके पति पर कोई फर्क नहीं पड़ता। वह अपनी व्यथा–कथा भी किसी से कह नहीं पाती कि दिल हल्का हो सके। और एक दिन वह दुखी मन से खुद को खत्म कर लेती है। यह ऐसी स्थिति होती है जब किसी व्यक्ति की जिन्दगी में उम्मीद खत्म हो जाती है और उसे अपना कोई भविष्य नजर नहीं आता। इसे ही अवसाद या डिप्रेशन कहते हंै जिससे समय रहते बाहर न निकाला जाये तो वह व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। आत्महत्या क्षणिक रोष, वाद–प्रतिवाद के कारण भी हो सकता है लेकिन उसकी जड़ में लम्बे समय से चला आ रहा अवसाद ही होता है।
पिछले साल अक्टूबर में ‘द लैनसेट पब्लिक हेल्थ’ में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में आत्महत्या करने वाली हर 5 महिलाओं में 2 महिलाएँ भारतीय होती हैं। यह बात सामान्य नहीं है क्योंकि विश्व की लगभग 18 प्रतिशत आबादी भारत में रहती है। दुनियाभर में आत्महत्या करने वाली महिलाओं में भारत की हिस्सेदारी उसकी जनसंख्या की तुलना में दोगुने से भी अधिक है। यह लगभग 37 प्रतिशत है। 1990 की तुलना में 2016 में आत्महत्या की दर 40 प्रतिशत बढ़ गयी है। भारत में सबसे ज्यादा तनाव–अवसाद और आत्महत्या के मामले दक्षिणी राज्यों और पश्चिम बंगाल में दर्ज किये गये हंै जो विकसित राज्य हैं।
ये आँकड़े दर्शाते हैं कि भारत में मरना या आत्महत्या सामान्य बात हो गयी है। इसकी पुष्टि हम रोज–ब–रोज आस–पास की घटनाओं, समाचार पत्रों में आ रही दुर्घटनाओं, हत्याओं, आत्महत्याओं की खबरों से कर सकते हैं। इसका असर यह होता है कि किसी व्यक्ति के दिल में मरने का खौफ नहीं रह जाता है। छोटी–छोटी बातों पर मरने–मारने की धमकियाँ आम बोल–चाल की भाषा में आ गयी हैं। खास कर महिलाएँ अकसर ही मरने की धमकियाँ देती हुई सुनी जा सकती हैं। यह उनके साथ लगातार हो रहे दोहरे व्यवहार के चलते उपजी कुण्ठा और निराशा की देन है।
आत्महत्या करने वाली ज्यादातर महिलाओं की उम्र 20–30 के बीच पायी गयी है जो शादी का पहला या दूसरा दशक होता है। कम उम्र में ब्याही लड़कियों के ऊपर घर का बोझ और बच्चों की जिम्मेदारी आ जाती है जिसके लिए वे शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार नहीं होतीं। पर समाज के बनाये गये नियम–कायदे के आगे उन्हें सब कुछ चुपचाप सहना पड़ता है जिससे वे धीरे–धीरे अवसादग्रस्त हो जाती हैं।
विकास क्रम के साथ–साथ लोगों के बीच अलगाव बढ़ा है, तकनीक के विस्तार के साथ–साथ हाथों की जगह मशीनों के प्रयोग और बढ़ती आर्थिक असमानता के कारण रोजगार और काम के अवसर घटे हैं। ऐसे में महिलाओं के लिए नौकरी के अवसर और भी कम हो जाते हैं। इस तरह पढ़ी–लिखी महिलाएँ भी अपने सपनों–आकांक्षाओं को मन में दबाये रहती हंै और अपनी छोटी–बड़ी इच्छाओं के लिए अपने पति पर निर्भर हो जाती हैं। खुद को असहाय समझना और दबी इच्छाएँ कुण्ठा पैदा करती हंै। कई मामलों में यह कुण्ठा प्रेम विवाह न कर पाने और समाज के पुरानी सड़ी–गली रीति–रिवाजों को ढोते रहने के कारण भी होती है।
जो देश इन सभी चीजों से ऊपर उठ चुके हैं और भारत के ही समान विकास स्तर पर हैं, वहाँ के मुकाबले भारत में आत्महत्या के मामले कहीं ज्यादा (लगभग 1–8 प्रतिशत) दर्ज किये गये। जबकि अमरीका और आस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों की तुलना में यह आँकड़ा इससे भी अधिक है, जहाँ आर्थिक असमानता और स्त्री–पुरुष असमानता सीमित दायरे में है, सामाजिक ढाँचा लोगों को अपने निजी फैसले लेने, प्रेम विवाह करने की स्वतंत्रता देता है। दक्षिणी राज्यों में केरल में अपेक्षाकृत कम आत्महत्या के मामले सामने आये हैं। केरल सबसे अधिक साक्षरता दर और महिला साक्षरता दर वाला राज्य है। यहाँ महिलाएँ अधिक आत्मनिर्भर और स्वतंत्र हैं और हर तरह के रोजगार में अपना पैर जमाये हुए हैं।
व्यक्ति की सामाजिक और आर्थिक स्थिति बहुत हद तक उसकी मानसिक स्थिति को प्रभावित करती है। महिलाएँ आज भी सामाजिक पिछड़ेपन और आर्थिक परनिर्भरता की शिकार हैं। फिर भी वे अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती हैं, सवाल खड़े करती हैं। लेकिन एकता की कमी के कारण उनका यह व्यक्तिगत संघर्ष अलग–थलग पड़ जाता है। अकेले में वे इस समस्या को समुचित रूप में नहीं समझ पातीं, इसकी तह में नहीं पहुँच पातीं। इस अन्तहीन लगने वाले संघर्ष में वे उम्मीद खो देती हैं। यह नाउम्मीदी उन्हंे अवसाद के गहरे दलदल में धकेल देती है। जबकि महिलाओं को आज यह समझाना बहुत जरूरी है कि जिन समस्याओं से वे आज गुजर रही हैं, ये उनके अकेले की नहीं हंै बल्कि इस व्यवस्था के भीतर तमाम महिलाओं की साझी समस्याएँ हंै और इसी तरह यह संघर्ष भी उनके अकेले का नहीं है और न ही आत्महत्या इसका समाधान है।
इतनी बड़ी संख्या में होने के बावजूद, एक–दूसरे की पीड़ा और उद्देश्य समान होने के बावजूद आज महिलाएँ अलग–थलग हैं, खुद को अकेला महसूस करती हैं। यह अकेलापन भी इसी व्यवस्था की देन है जो उन्हें जीवन जीने की बेहतर सुविधाएँ और परिस्थितियाँ मुहैया नहीं कराता, उन्हें उनके सामाजिक–आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने से रोकता है, जिसमें सामाजिक–सांस्कृतिक तौर पर उन्हंे अवहेलना का शिकार होना पड़ता है। इसलिए यह जरूरी है कि महिलाएँ एक दूसरे को जाने–समझंे और संगठित हों। क्योंकि संगठित होकर ही महिलाएँ इस सड़ी–गली व्यवस्था से लोहा ले सकती हंै और इसकी जगह पर एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण कर सकती हैं जिसमें उन्हें सामाजिक–आर्थिक–सांस्कृतिक समानता हासिल हो सके और जीवन की बुनियादी जरूरतों को सबके लिए मुहैया कराया जा सके।
                                                        ––सिमरन

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